गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
महात्माकी पहचान
किसी महात्माके पास उपदेश लेनेके लिये गये। भगवान्ने कह है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
(गीता ४।३४)
उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दणडवतं प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।
उसका फल यह होगा-
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।
(गीता ४।३५)
जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञानके द्वारा तू सम्पूर्ण भूतोंको नि:शेषभावसे पहले अपनेमें और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।
जिस महात्मा का इस प्रकार का असर पड़े, वह ज्ञानी महात्मा है। महात्मा यदि यथार्थ है एवं शिष्य यथार्थ नहीं है तो महात्मा पहले तो उसे पात्र बनानेके लिये ही उपदेश दे। किसी कारणवश वह दयाका व्यवहार करे तो भी थोड़ा बहुत तो उसके उपदेशका असर पड़ेगा ही।
महात्मा के पास जितने आदमी बैठे होंगे, उन आदमियों में दैवी सम्पदाका भाव आयेगा। आसुरी सम्पदाका भाव उसके सामने कम आयेगा। एक आदमी सत्यवादी है, उसके सामने मिथ्या बोलनेवालेका भाव दबेगा।
हम अन्धकारमें, अज्ञानमें हैं, महात्माके अपने पास आनेपर हृदयमें प्रकाश होता है। यदि सद्भावोंका उदय नहीं होता तो उस महात्मासे अपने कुछ आना-जाना नहीं है।
प्रश्न-पहले तो श्रद्धा होती है फिर नहीं?
उत्तर-एक तो स्वभावसिद्ध श्रद्धा होती है और एक गुण, आचरण, प्रभावको लेकर श्रद्धा होती है। दूरसे उस महात्माकी प्रशंसा सुनी, जाकर महात्मामें जो गुण होने चाहिये, वे मिलाते हैं तो हमें वे गुण उनमें मालूम नहीं देते तो श्रद्धा कम हो जाती है।
किसी दम्भीपर हमारा भाव अच्छा हो तो हानि नहीं है। परमात्माकी शरण हों तो परमात्मा क्या देंगे। भगवान् इतना भी रक्षा नहीं करें तो ऐसे भगवान्से मिलनेसे क्या लाभ। जो भगवान्के चेतानेपर भी नहीं चेते वह भगवान्का भक्त नहीं है।
ईश्वरपर निर्भर हो जाय तो भगवान् उसे बचा लेते हैं, अत: ईश्वरकी ही शरण लें। बच्चा आगमें कूदने जा रहा है, माँ बचा लेती है, माँ हर समय खयाल रखती है। भोजन बनाती है, बच्चा साँप, बिच्छूकी ओर जाता है तो माँ रोटी छोड़कर भागती है, झट आकर उठा लेती है, समझाती है कि यह काट लेगा।
एक छोटा लड़का आगकी तरफ जा रहा है, चमकता अंगार पकड़ने जा रहा है, माँकी दृष्टि पड़ी, झट आकर उसे उठा लिया। एक समय लड़केने उस अंगारमें हाथ लगा दिया। जल गया, अब उसे ज्ञान हुआ।
लालटेन पड़ी है हाथ लगाता है, माँ कहती है ताता है, वह नहीं समझता, तब उसकी अँगुली उसपर लगाती है। गरम लगनेसे बालक अँगुली हटा लेता है, रोने लग जाता है। अब बच्चा समझ जाता है। उसे ज्ञान हो गया। इसी प्रकार परमात्मा भोले आदमियोंकी ज्ञान कराते हैं।
जो खुद बच जाता है वह ज्ञानी है। जो भक्त हैं उन्हें भगवान् बचाते हैं। इसलिये भगवान्पर निर्भर होना चाहिये, भगवान् ही बचाते हैं। व्याख्यानका यह सार है कि भरोसा बड़ी चीज है, हम लोगोंकी दुर्दशा इसलिये हो रही है, क्योंकि भरोसा नहीं है। ईश्वरका भरोसा हो तो बहुत भारी काम हो सकता है, निर्भयता आ जाती है। संसारमें जितना अड़ंग-बड़ंग हो रहा है, लोग भयभीत हो रहे हैं, इसमें परमात्माके भरोसेकी कमी है। जो परमात्माके भरोसे हो जाय, उसे किस बातकी चिन्ता है। भगवान्के आश्रित रहनेवाला समझता है कि मेरा अनिष्ट हो ही नहीं सकता। अनिष्ट होनेपर भी वह भगवान्का पुरस्कार समझता है, स्वामीका विधान समझता है।
जबतक भय रहता है तबतक कचाई है। यह कचाई बहुत दूरतक चलती है। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं-
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दूट्रा रूपं घोरमीदूङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।
(गीता ११।४९)
मेरे इस प्रकारके विकराल रूपको देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिये और मूढभाव भी नहीं होना चाहिये। तू भयरहित और प्रीतियुक्त मनवाला होकर उसी मेरे इस शंखचक्र-गदा-पद्मयुक्त चतुर्भुजरूपको फिर देख।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(गीता ४।६-९)
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।
हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ।
साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पाप-कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
इन वचनोंसे भगवान् स्वयं कहते हैं कि मैं भगवान् हूँ। अर्जुन कहता है मैं आपके वचनोंको यथार्थ मानता हूँ मुझे अपना स्वरूप दिखलाइये।
भगवान्ने दिव्य दृष्टि देकर अपना स्वरूप दिखलाया, अर्जुन भयभीत हो गया। भगवान्ने कहा-तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये। स्वामीसे और अपने प्यारे मित्रसे कभी हानि हो सकती है?
तुम्हें दु:ख, मोह नहीं होना चाहिये, परन्तु घटना तो यह घटी ही।
इसी प्रकार किसी अंशमें यह घट जाय तो यह विश्वास करना चाहिये कि भगवान् हानि नहीं कर सकते। अर्जुनने जैसे प्रार्थना की, भगवान्ने उसी समय चतुर्भुज स्वरूप दिखलाया।
जबतक परमात्माका यथार्थ ज्ञान नहीं हो जाय, तबतक दर्शन होनेपर भी भय हो सकता है। अर्जुनमें पहले कुछ कचाई थी। अन्तमें अठारहवें अध्यायमें भगवान्ने पूछा-तुम्हारा मोह नष्ट हुआ कि नहीं?
अर्जुनने कहा-हाँ आपकी कृपासे। अर्जुनने तो पहले भी कहा था कि मैं आपकी शरण हूँ, पर भगवान् शरण नहीं मानते, क्योंकि उसके बाद ही अर्जुनने कहा युद्ध नहीं करूंगा। पूरे रूपसे शरण तो अठारहवें अध्यायमें ही हुआ। ग्यारहवें अध्यायमें तो भगवान्ने कहा ही है कि तेरेमें मूढ़भाव नहीं होना चाहिये। यह मोह अन्ततक रहता है। ईश्वरको, महात्माको नहीं पहचानते, यह मूढ़भाव है।
दर्शन होकर भी जानना एक न्यारी चीज है। तत्त्वसे जानना एक चीज है, दर्शन एक चीज है, प्राप्त होना एक चीज है। भक्तिसे तीनों हो जाते हैं।
अर्जुनके देखनेमें तो कमी थी नहीं, तत्त्वसे जाननेमें कमी थी। हम महात्माओंके पास जाते हैं, दर्शन कर लेते हैं, किन्तु तत्त्वसे नहीं जानते, नहीं तो उन्हें छोड़कर क्यों चले आते। उन महात्मासे बढ़कर और क्या चीज है। कोई पारस देखकर आये, कहे कि मैं पारसका दर्शन कर आया, फिर भी उसे छोड़ आता है तो उसने पत्थरका दर्शन किया।
जब भगवान्ने साक्षात् अवतार लिया था, उस समय गिनतीके लोग उन्हें जानते थे। प्रत्यक्ष होते हुए भी ईश्वरको जाननेवाले कम थे, फिर महात्माको जाननेवाले कम हों इसमें कौन बड़ी बात है। भगवान् कहते हैं-
अवजानन्ति मा मूढा मानुषी तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।
(गीता ९।११)
मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़ लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं
अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं।
मुझ परमेश्वरको परमेश्वर नहीं मानना ही मेरा तिरस्कार करना है, मूढ़ोंका समूह मुझे नहीं जानता। भगवान् कहते हैं-
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
(गीता ७।२५)
अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वरको नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरनेवाला समझता है।
वह योगमायाका पर्दा ईश्वरकी शक्ति है। यह आड़ दूर कैसे हो ? भगवान्की शरण होनेसे।
दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
(गीता ७।१४)
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।
नहीं तो भगवान्के पासमें रहते हुए भी कल्याण नहीं हो सकता। दुर्योधन आदिने भगवान्को नहीं जाना। उसी प्रकार संसारमें महात्मा बहुत हैं पर पहचाने बिना लाभ नहीं होता। नहीं पहचाननेमें कारण है ईश्वरकी माया, इसलिये भी शरण ही सबसे बढ़कर बात हुई। उसी परमात्माकी शरण होना चाहिये। भगवान् कहते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(गीता १८।६६)
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
इस श्लोकमें चार बातें हैं-
१. सारे धमाँका त्याग।
२. मेरी शरण आना।
३. मैं सारे पापोंसे मुक्त कर दूँगा।
४. तू शोक मत कर।
सारे धमाँका त्याग क्या है? यह श्लोक बड़ा गहन है। ब्रह्माजीके पास देवता, असुर, मनुष्य उपदेश लेनेके लिये गये। ब्रह्माजीने तीनोंको उपदेश दिया-'द' इसका तात्पर्य तीनोंके लिये इस प्रकार था-दानवोंके लिये कहा-दया करो। मनुष्यके लिये कहा-दान करो। देवताओंके लिये कहा-इन्द्रियोंका दमन करो।
इसी प्रकार भक्ति मार्गवाला यह अर्थ निकालता है-यज्ञ, दान, तप सब छोड़कर ईश्वरकी भक्ति करो।
जो कर्मयोगी हैं वे अर्थ करते हैं कि कर्मको स्वरूपसे मत त्यागो उसका फल त्यागो।
ज्ञानमार्गीने अर्थ निकाला इन्द्रियाँ और मनकी क्रिया, शरीरका धर्म है, तुम आत्मा हो, शरीरका धर्म त्यागो अर्जुनके प्रति भगवान्ने क्या कहा-यह तो भगवान् और अर्जुन ही जानें। यदि कहो कि तुमने क्या अनुमान किया है? मैंने तो यह अनुमान किया-
मुझ एककी शरण आ जा, इससे यह ध्वनि निकलती है कि सारे धर्मोंका आश्रय छोड़ दे। फल और आश्रय छोड़नेमें यह अन्तर है कि फल छोड़नेवालेमें अभिमान रहता है, आश्रय लेनेवालेमें अभिमान नहीं रहता। कठपुतलीकी तरह नाचे, वह सूत्रधारके ही परायण है। क्रिया भी भगवत्परायण है, स्वयं भी परायण है। 'सर्वधर्मान्' से क्रिया अर्पण हुई। 'शरण व्रज'-इससे अपने-आपको अर्पण करना है। तात्पर्य यह है कि जैसे मैं करवाऊँ, वैसे तू कर।
अर्जुनने इसीका उत्तर दिया-'करिष्ये वचनं तव' यह श्लोक कठपुतलीपर घट सकता है। अन्त:करण जड़ है। यहाँ स्वयंकी शरण होनेकी बात है। स्वयं चेतन होकर जड़ कठपुतलीकी तरह होना यह विशेषता है। भगवान्की शरण हो जाय, उसका फल भगवान्ने यह बताया-मैं सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।
(गीता १८।५७-५८)
सब कर्मोंको मनसे मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योगको अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो।
उपर्युक्त प्रकारसे मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जायगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थसे भ्रष्ट हो जायगा।
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